Anurag Kashyap: ब्राह्मण के मुँह पर मू*त देंगे | Freedom of Speech or Targeted Hate?" | Anurag Kashyap Vs Brahman | Phule Movie

 Anurag Kashyap: ब्राह्मण के मुँह पर मू*त देंगे | Freedom of Speech or Targeted Hate?" | Anurag Kashyap Vs Brahman | Phule Movie 



यहां पर पेशाब करना सख्त मना है यह तख्ती दीवारों को गंदा होने से तो बचा सकती है, लेकिन जब कोई दिमाग से वैचारिक कचरा उछाल दे तो उसे कोई कैसे रोकेगा? अनुराग कश्यप को देख लीजिए, जिन्होंने कभी सिनेमा के पर्दे पर समाज की सिया सच्चाइयों को घेरा, आज वैचारिक तौर पर पेशाब कर रहे हैं। उनका ताजा बयान ब्राह्मण समुदाय पर धमकी ना सिर्फ उनकी बौद्धिक कमी को दर्शा रहा है बल्कि एक ऐसी मानसिकता का परिचय भी दे रहा है जो मानो प्रतिभा को नफरत की भट्टी में झोंक चुकी है।

हालांकि यह अनुराग कश्यप का पहला विवाद नहीं है। इससे पहले भी वह हिंदुओं को आतंकवादी कह चुके हैं, केंद्र सरकार को नाजी कह चुके हैं। इस बार ब्राह्मणों पर हमला करने की बात कह चुके हैं और हर बार उनका एक ही तर्क होता है कि "मैं सच कह रहा हूं, समाज को जगा रहा हूं।" लेकिन अनुराग भाई, सच और नफरत में अंतर होता है। आपकी बेबाकी अब समाज को प्रेरित नहीं बल्कि आपको बदनाम कर रही है। आपके चाहने वालों को वह शर्मिंदा कर रही है जिन्होंने आपको इतना प्यार दिया।

आपकी पिक्चर गैंग्स ऑफ वासेपुर की गालियां कहानी का हिस्सा थीं, लेकिन वास्तविक जीवन में गाली देना आपकी प्रतिभा को नष्ट करता है। अनुराग कश्यप की बेबाकी ने उन्हें एक प्रगतिशील फिल्मकार के तौर पर पहचान दिलाई, लेकिन उनकी अति आक्रामक और अपमानजनक भाषा उनके करियर को बार-बार विवादों में डुबोती है। उनके समर्थक इसे सच बोलने की हिम्मत कहते हैं। वे कहते हैं कि जातिवाद के खिलाफ अनुराग कश्यप बेबाकी से लड़ाई लड़ रहे हैं।

लेकिन क्या सामाजिक लड़ाई का मतलब एक समुदाय को अपमानित करना होता है? क्या प्रगतिशील होने का मतलब मर्यादाओं को तार-तार करना होता है?


हालांकि जब पेशाब का जिक्र हो ही गया है तो हमें लगा कि क्यों ना हम खुलकर बता दें कि पेशाब भी प्राकृतिक है। मेडिकल साइंस कहता है कि पेशाब करना जरूरी है, वरना किडनी खराब हो जाती है। और सब करते भी हैं—इंसान करता है, जानवर करता है, हिंदू करता है, मुसलमान करता है, दलित करता है, ब्राह्मण करता है। मगर हमारे देश में शब्द जो हैं, वो चरित्र बताते हैं। जैसे जब बच्चे करते हैं तो उसे सुसु कहते हैं, बड़े करते हैं तो पेशाब करते हैं, बुजुर्ग करते हैं तो लघु शंका होता है। लेकिन जब बदतमीजों की बात आती है, तो...

वैसे ही इंसान जो नशे या घमंड में पेशाब करता है, घृणित है। शोहरत और ताकत ने जिसे बदतमीज बना दिया है, वह खुद अपना अपमान करवाता है। और इसीलिए आज अनुराग कश्यप की फिल्मों को चाहने के बावजूद बड़े अफसोस से कहना पड़ रहा है कि इस तरह की हरकतें यह एहसास दिलाती हैं कि अनुराग कश्यप अब वो फिल्मकार नहीं रहे जिन्होंने *ब्लैक फ्राइडे* और *गैंग्स ऑफ वासेपुर* से सिनेमा को नई परिभाषा दी थी।

वो एक ऐसे शख्स बन रहे हैं जो अपनी जहरीली जुबान से समाज की संवेदनाओं को कुचल रहे हैं। ब्राह्मण समुदाय पर धमकी देकर उन्होंने साबित किया कि उनकी बौद्धिकता अब नफरत के गटर में डूब चुकी है। क्योंकि एक निजी टिप्पणी के लिए पूरे समाज को गाली देना अभद्र है। और अनुराग कश्यप बखूबी जानते थे कि वो क्या बोल रहे हैं। अनुराग कश्यप कोई दुधमुंहे बच्चे नहीं हैं कि यूं ही कह दिया, कैजुअली पूरे समाज को कह दिया कि "तुम पर पेशाब करेंगे।"


अनुराग कश्यप के चाहने वाले हो या नफरत करने वाले, उनके सामाजिक विषयों में उनके साथ खड़े लोग हों या किसी भी जाति, धर्म, पंथ से आने वाले हों—अनुराग कश्यप की इस टिप्पणी को आप सपोर्ट नहीं कर सकते। यह बहुत ज्यादा *बिलो द बेल्ट* है। और यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अनुराग कश्यप कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। उनका कद बड़ा है, और बड़ा कद बड़ी जिम्मेदारियां लेकर आता है। संवाद के वक्त और ज्यादा सावधानी बरतनी होती है। अनुराग कश्यप ने जो किया, उसे कहीं से स्वीकारा नहीं जा सकता। कोई लॉजिक इसको जस्टिफाई नहीं कर सकता। क्योंकि किसी एक व्यक्ति की टिप्पणी को पकड़ कर पूरे समाज को जैसी अपमानजनक गाली देना, उससे शायद ही कोई समाज बचा सके।

और अनुराग के तो तमाम मित्र हैं जो इसी समाज से आते हैं। जिस *गैंग्स ऑफ वासेपुर* ने अनुराग को और उनकी फिल्मों को बड़ी पहचान दिलाई, उसमें मुख्य किरदार मनोज बाजपेयी थे, जो ब्राह्मण समाज से हैं। पंकज त्रिपाठी भी हैं। हालांकि यहां मसला किसी जाति का नहीं है। यह मसला किसी एक वर्ग विशेष की तरफ से आवाज उठाने का भी नहीं है। यह समाज के तौर पर है। और अनुराग कश्यप वो व्यक्ति हैं जो समाज को आईना दिखाया करते थे। लेकिन जिस समाज को आईना दिखाते थे, ऐसा लगता है कि उस शीशे को अपने हाथों से तोड़ दिया।

25 अप्रैल को उनकी फिल्म *फुले* रिलीज होगी। लेकिन ऐसा लगता है कि अपने बयानों से उन्होंने उस फिल्म की आत्मा को पहले ही ताक पर रख दिया है। समाज को जोड़ने के बजाय उन्होंने उसे गहरे विभाजन की आग में झोंक दिया। सवाल यह नहीं कि क्या बोलते हैं। सवाल यह है कि अनुराग कश्यप की यह बात सोशल मीडिया पर कितनों को जख्म देगी? किस तरह से समाज में गंदगी और फैल गई है इस टिप्पणी के बाद?


अनुराग कश्यप की फिल्म *फुले* ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले की क्रांतिकारी जिंदगी की कहानी थी—जातिवाद और अन्याय के खिलाफ उनकी लड़ाई का जीवंत चित्रण। लेकिन जब सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म पर कैंची चलाई, कुछ शब्द हटाए, डायलॉग बदले, कई लोगों ने इसे जातिवादी बताया, तो वो अनुराग जो सेंसरशिप को लेकर हमेशा से मुखर रहे हैं, वो इस पर नाराज हो गए। सोशल मीडिया पर सेंसर बोर्ड की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए। लेकिन यह तो तूफान से पहले की शांति थी।

अनुराग कश्यप ने इसके बाद जो कुछ कहा, वो देश में सवाल उठा रहा है—अभिव्यक्ति की आजादी के मतलब को लेकर। क्या व्यक्ति की आजादी का मतलब किसी समुदाय का अपमान करना है? रेसिस्ट होना है? पूरी कौम को गालियां देनी हैं? क्या ब्राह्मणों को गालियां देना अनुराग कश्यप की नजर में प्रगतिशीलता है या सिर्फ सस्ती सुर्खियों को पाने का हथकंडा?

हालांकि फिल्म वालों को, फिल्म कलाकारों को, फिल्म बनाने वालों की बातों को समाज के लोगों को बहुत बुरा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि फिल्मकार अक्सर अपनी फिल्मों के साथ विचारधारा बदल लेते हैं। कई बार वो बदल जाते हैं अपनी बातों से, अपने स्टैंड से। और ऐसे अनगिनत फिल्मकार और अभिनेता हैं जो वक्त के साथ बदल गए।

लेकिन फिर भी एक लकीर होनी चाहिए *फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन* के नाम की भी, जिसे पार नहीं होना चाहिए।

अनुराग कश्यप ने वो रेखा पार कर दी, जहां आज़ादी खत्म होती है और अराजकता की शुरुआत हो रही है। और इसी वजह से बड़े अफसोस से कहना पड़ रहा है कि वो सिनेमा के सितारे नहीं, बल्कि वैचारिक विवादों का केंद्र बन चुके हैं।

हैं अनुराग कश्यप को दरअसल सोशल मीडिया पर एक यूजर ने उकसा दिया था और इसी के जवाब में अनुराग ने सारी मर्यादाओं को लांघ दिया। कहा कि कोई प्रॉब्लम?


यह शब्द किसी एक व्यक्ति पर नहीं, एक समुदाय के सम्मान पर किया गया था। यह वो अनुराग नहीं थे जिन्होंने *ब्लैक फ्राइडे* में सांप्रदायिक दंगों की त्रासदी को दिखाया था। ये एक ऐसा व्यक्तित्व था जिसने अपनी बुद्धि और नैतिकता को विवादों में डुबो दिया।

अनुराग के एक बयान ने ना सिर्फ उन्हें निशाने पर लाया बल्कि *फुले* जैसे सार्थक फिल्म को विवादों के दलदल में धकेल दिया।  
हालांकि माफी मांगी गई, लेकिन यह माफी देर से थी, अधूरी थी, अप्याप्त थी। क्योंकि 18 अप्रैल की रात जब अनुराग कश्यप को लगा कि फिल्म विवादों में जा रही है, उनका विवाद अब उन्हें ही नुकसान पहुंचा रहा है, तो माफी मांगी।  

लेकिन यह माफी कितनी सच्ची थी? क्योंकि इस माफी में लिखा गया कि उनके बयान को संदर्भ से हटाकर गलत समझा गया और उनके परिवार को धमकियां दी जा रही हैं।

अनुराग जी, *with all due respect* और एक प्रशंसक के तौर पर – जब आप स्वयं एक समुदाय को अपमानित करने का दुस्साहस करेंगे, तो फिर जवाब में प्रशंसा की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?  
"और जैसे" शब्दों का कोई संदर्भ नहीं होता अनुराग जी – ये स्पष्ट रूप से नफरत की भाषा है।  


माफी के नाम पर यह स्पष्टीकरण... seriously? यह तो वही बात हुई कि पहले आग लगाई जाएगी और फिर पानी डालकर हीरो बनने की कोशिश की जाएगी।

अनुराग कश्यप की कहानी सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, यह उस समाज की कहानी है जो प्रतिभा को सम्मान देता है लेकिन जिम्मेदारी की अपेक्षा भी रखता है।  
अनुराग जी, सिनेमा के माध्यम से आपने समाज को झकझोरा है, लेकिन अब आप उसे विवादों का ज़हर दे रहे हैं।  

*फुले* जैसी फिल्म जो एक क्रांतिकारी संदेश दे सकती थी, आपके बयानों की वजह से सिर्फ विवादों में उलझकर रह गई है।  
वह समाज को जोड़ने का काम कर सकती थी, मौजूदा दौर में एक सीख दे सकती थी, समाज को सही-गलत की समझ समझा सकती थी।  
लेकिन आपने समाज में नफरत...  

अनुराग जी, अभी भी समय है। आशा करते हैं कि आप अपनी वाणी पर नियंत्रण रखेंगे।  
वरना यह देश जो आपकी प्रतिभा का कायल रहा है, कहीं ऐसा न हो कि इतिहास के पन्नों में सिर्फ एक नफरती चिंटू मानकर आपको भुला दे।

आशा करते हैं, एक प्रशंसक के तौर पर मैं आपसे अपेक्षा भी करता हूं कि सुधार कीजिएगा, क्योंकि वैचारिक प्रदूषण का अनुराग भाई कोई *sir support* नहीं होता।


आशा करता हूं इस प्रशंसक की अपेक्षा पर आप खरे उतरेंगे।  
**जय हिंद, जय भारत।**

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