I will not speak Kannada: देश में भाषा को लेकर हर तरफ विवाद: भाषा, राजनीति और राष्ट्रीय एकता News Number 1

 I will not speak Kannada: देश में भाषा को लेकर हर तरफ विवाद: भाषा, राजनीति और राष्ट्रीय एकता News Number 1 


"आई विल नॉट स्पीक कन्नड़" विवाद: भाषा, राजनीति और राष्ट्रीय एकता

21 मई को कर्नाटक के बेंगलुरु से एक वीडियो सामने आया जिसने पूरे देश में हलचल मचा दी। इस वीडियो में एक एसबीआई ब्रांच की मैनेजर एक स्थानीय व्यक्ति से स्पष्ट रूप से कह रही थी कि वह कन्नड़ में बात नहीं करेगी, बल्कि हिंदी या अंग्रेजी में बात करेगी, क्योंकि यह भारत है। दूसरी ओर, वह व्यक्ति लगातार जोर दे रहा था कि कर्नाटक में होने के नाते उसे कन्नड़ में ही बात करनी चाहिए। यह वीडियो देखते ही देखते वायरल हो गया और इस पर देशभर से तीखी प्रतिक्रियाएं आईं।


राजनीतिक प्रतिक्रिया और SBI का कदम

बीजेपी सांसद तेजस्वी सूर्या ने इस घटना को "अस्वीकार्य व्यवहार" बताया और कहा कि ग्राहक सेवा में लगे व्यक्ति को स्थानीय भाषा में बात करनी ही चाहिए। विवाद बढ़ने पर एसबीआई ने उस कर्मचारी का तबादला कर दिया, जिसका कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने स्वागत किया। हालांकि, कर्नाटक के बाहर इस पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आईं। लोगों का कहना था कि केंद्र सरकार के कर्मचारी को स्थानीय भाषा में बोलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, खासकर जब उनका हर तीन साल में तबादला होता है। लोगों ने यह भी सवाल उठाया कि यह विवाद कन्नड़ के अपमान का नहीं, बल्कि हिंदी भाषा से नफरत का है।


भाषा विवाद और हिंदी विरोध की राजनीति

वीडियो वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई। कई लोगों ने तर्क दिया कि अगर बेंगलुरु में हर व्यक्ति से कन्नड़ बोलने की उम्मीद की जाती है, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मचारियों को भी ऐसा ही करना चाहिए, जबकि वास्तविकता यह है कि स्थानीय लोगों को भी अंग्रेजी में बात करनी पड़ती है। इसके अलावा, लोगों ने यह भी पूछा कि कर्नाटक के 15-20% लोग जो दूसरे राज्यों में काम करते हैं, उनमें से कितनों ने वहां की स्थानीय भाषा सीखी है।

कई उदाहरणों के माध्यम से यह साबित करने की कोशिश की गई कि कर्नाटक में लंबे समय से हिंदी विरोधी राजनीति चल रही है। कई जगहों पर हिंदी में लिखे साइन बोर्ड पर कालिख पोती गई, बेंगलुरु मेट्रो स्टेशन पर हिंदी नाम ढक दिए गए और कुछ स्थानों पर हिंदी बोर्डों को तोड़ भी दिया गया। बेंगलुरु महानगर पालिका (BBMP) ने भी अपील की थी कि 60% साइन बोर्ड कन्नड़ भाषा में होने चाहिए।

इस विवाद के बीच कुछ वीडियो भी सामने आए, जिनमें कन्नड़ राजनीति करने वाले कांग्रेस के नेता मुस्लिम सम्मेलनों में उर्दू या हिंदी में बात करते दिख रहे थे, जिससे यह सवाल उठा कि उन्हें हिंदी से इतनी दिक्कत क्यों है। कुछ इमारतों की तस्वीरें भी साझा की गईं, जिनमें उर्दू में नाम लिखे थे, यह दर्शाने के लिए कि उर्दू के प्रति कोई परहेज नहीं है, तो हिंदी से क्यों है?


राष्ट्रीय एकता और बाहरी खतरों की अनदेखी

कुल मिलाकर, इस विवाद का सार यह था कि स्थानीय भाषाओं का सम्मान होना चाहिए, लेकिन हिंदी से इतनी चिढ़ क्यों है? लोगों ने सवाल उठाया कि क्या कभी गुरुग्राम या नोएडा में किसी दक्षिण भारतीय व्यक्ति के साथ उसकी भाषा के आधार पर दुर्व्यवहार किया गया है। यह तर्क दिया गया कि दूसरे राज्य में जाकर भाषा सीखना अच्छी बात है, खासकर सार्वजनिक डीलिंग के काम में, लेकिन भाषा के नाम पर ऐसी राजनीति नहीं होनी चाहिए जिससे भारतीय आपस में ही लड़ने लगें।

वक्ता ने इस विवाद को ऐसे समय में उठाया, जब देश पाकिस्तान के साथ "युद्ध जैसी स्थिति" में है, जासूस पकड़े जा रहे हैं, और जिहादी ताकतें लोगों को आपस में लड़ाने की ताक में हैं। पहलगाम में हुए हमले का उदाहरण देते हुए, यह तर्क दिया गया कि आतंकवादियों ने पीड़ितों की भाषा या गोत्र नहीं पूछा, बल्कि केवल उनकी "हिंदू पहचान" ही काफी थी।


राजनीतिक दलों का विभाजनकारी रवैया

यह भी आरोप लगाया गया कि बड़ी पार्टियां इस बात को नहीं समझ रही हैं। समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की और कहा कि हिंदू नाम का कोई धर्म नहीं है, यह ब्राह्मणों का षड्यंत्र है। तमिलनाडु में स्टालिन की पार्टी पर भी सनातन धर्म को डेंगू बताने और हिंदी थोपने के नाम पर सरकार से लड़ने की धमकी देने का आरोप लगा। एक इंटरव्यू में तो यह भी कहा गया कि भगवत गीता नफरत फैलाती है। ये सब खुद को हिंदी और उत्तर भारत की राजनीति का सबसे बड़ा विरोधी साबित करने और अपने समर्थकों में तमिलियों के सबसे बड़े रहनुमा के रूप में स्थापित करने के लिए किया जा रहा है। मार्च में हिंदी भाषा के समर्थकों को "सच्चा राष्ट्र विरोधी" भी कहा गया।


आंतरिक दुश्मन और विदेशी प्रोपेगेंडा

वक्ता ने जोर दिया कि पाकिस्तान से सीधा युद्ध महंगा और बदनाम करने वाला है, इसलिए दुश्मन देश आंतरिक अशांति का फायदा उठाता है और इसे बढ़ावा देने वाले लोगों को फंडिंग करता है। कश्मीर में आतंकवाद का फैलाव और पहलगाम जैसी घटनाएं इसी का परिणाम हैं। पंजाब में भी पाकिस्तान कुछ गुरुद्वारों को निशाना बना रहा है, लेकिन कुछ धार्मिक नेता पाकिस्तान परस्ती करते हुए इस बात को मानने से इनकार कर रहे हैं। भारतीय सेना के दावों पर संदेह करके वे कहीं न कहीं पाकिस्तान के प्रोपेगेंडा को ही समर्थन दे रहे हैं।

यह भी कहा गया कि भारत में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पाकिस्तान के साथ युद्ध का विरोध करते हैं, "से नो टू वॉर" के हैशटैग चलाते हैं, और पहलगाम हादसे के लिए पाकिस्तान से ज्यादा अपनी ही सेना पर सवाल उठाते हैं। मुर्शिदाबाद जैसे हालिया हादसों और जनसांख्यिकी में बदलाव का जिक्र करते हुए, यह बताया गया कि कैसे बांग्लादेशी घुसपैठियों को वोट बैंक के लिए रोका नहीं गया, और अब हालात हाथ से निकल रहे हैं।


पाखंड और सबक न सीखना

वक्ता ने इस "पाखंड" की आलोचना की कि आतंकी को फांसी से बचाने के लिए रात 3 बजे सुप्रीम कोर्ट खुलवाई जाती है, लेकिन कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में बसाने के लिए कोई आवाज नहीं उठाता। वहीं, रोहिंग्याओं को वापस भेजे जाने पर तथाकथित बुद्धिजीवी उनका डिपोर्टेशन रुकवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट चले जाते हैं।

यह निष्कर्ष निकाला गया कि इतनी सारी घटनाओं के बावजूद कुछ लोग सबक सीखने को तैयार नहीं हैं। देश भाषा, जाति, उत्तर-दक्षिण और आरक्षण के नाम पर बंट रहा है, जबकि एक जिहादी सोच से पूरा मुल्क लड़ाई लड़ रहा है। हाल ही में गुजरात में एक 18 वर्षीय युवक द्वारा पाकिस्तान के साथ चल रही लड़ाई में भारत सरकार की 50 वेबसाइटों पर साइबर हमला करने का उदाहरण भी दिया गया, जिससे यह सवाल उठा कि क्या हमें किसी और दुश्मन की जरूरत है, या हमारे अपने ही लोग हमें बर्बाद करने के लिए काफी हैं।


एकजुटता की अपील

अंत में, वक्ता ने हर हिंदुस्तानी और भारतवासी से हाथ जोड़कर अपील की कि पहलगाम हादसे से सबक लें और जाति व भाषा के नाम पर बंटने की बजाय भारत के लिए एकजुट हों। उन्होंने कहा कि समय रहते यह समझना जरूरी है, इससे पहले कि किसी और को उसके बच्चे के सामने उसका धर्म पूछकर मार दिया जाए।

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