Satyapal Malik Arfa Khanum and Vijaita Singh: बयान या विश्वासघात Operation Sindoor
सियासत में दुश्मनी जितनी मन करे, जमकर करना, मगर इतनी गुंजाइश रखना कि कहीं बयान देने में कोई ऐसा विश्वासघात न हो जाए जो दुश्मन के हाथ एक हथियार लगा जाए. जब युद्ध होता है, तो केवल सीमा पार तैनात दुश्मनों से लड़ाई नहीं होती है; कई बार अंदर की चीजें भी दुश्मन के लिए हथियार बन जाती हैं. कई बार वो बयान, वो लेखन जो जाने-अनजाने सरकार पर किए जाते हैं, वो दुश्मन के नैरेटिव को हवा देते हैं.
पाकिस्तान जैसा मुल्क, जो 2001 में संसद में हमला करता है, 2008 में मुंबई में नरसंहार करता है, 2016 में उरी में, 2019 में पुलवामा में, फिर पहलगाम में, वो इन बयानों को आधार बनाकर हिंदुस्तान को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है, आतंकवाद की काली तस्वीर पर एक पर्दा डालने की कोशिश करता है.
सत्यपाल मलिक और पाकिस्तान का दुष्प्रचार
यही हो रहा है सत्यपाल मलिक और कई और हिंदुस्तानियों की वजह से. पाकिस्तान की संसद से लेकर पाकिस्तान के टीवी और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने सत्यपाल मलिक के बयानों को हथियार बनाकर फिलहाल पाकिस्तान हिंदुस्तान पर दोष मढ़ने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में यह सवाल हमारे मन में आ रहा है कि क्या राजनीतिक लाभ, राजनीतिक कुंठा या सुर्खियों की चाह में वो जो बयान दिए जाते हैं, क्या वो देश की सुरक्षा को कमजोर करने का जरिया बन रहे हैं? क्या यह देश से निकलकर दुश्मन के प्रचार को मजबूत कर रहे हैं, और क्या यह खतरनाक नहीं है?
जनरल बिपिन रावत ने कहा था कि भारत सिर्फ दो मोर्चों पर लड़ाई नहीं लड़ रहा; भारत की लड़ाई जो है, वो ढाई मोर्चों पर है. पहली लड़ाई पाकिस्तान से, चीन से, और जो दूसरी आधी लड़ाई है, वो भारत की धरती पर रहने वाले ऐसे लोगों से है जो जाने-अनजाने, बेवकूफीवश या कई बार विश्वासघात में पाकिस्तान को हथियार दे जाते हैं. इसीलिए सवाल है कि क्या सियासी महत्वाकांक्षा, व्यक्तिगत हित, अंतरराष्ट्रीय मंचों की चाह में कुछ लोग ऐसे नैरेटिव को बढ़ावा दे रहे हैं जो पाकिस्तान के लिए ताकत और हिंदुस्तान के लिए असहज होने की वजह बन रहा है?
अभिव्यक्ति की आजादी और जिम्मेदारी
अभिव्यक्ति की आजादी ठीक है, लेकिन क्या उस आजादी में जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए? यह सवाल बड़ा महत्वपूर्ण है और यह सवाल सत्यपाल मलिक के इर्द-गिर्द घूम रहा है. सत्यपाल मलिक जो पुलवामा हमले को लेकर सरकार पर गंभीर आरोप लगा रहे थे, फिलहाल पाकिस्तान इंटरनेशनल मीडिया के सामने उनके बयानों को कोट कर रहा है. वो यह दिखा रहा है कि देखिए भाई साहब, यह गवर्नर थे और यह खुलकर कह रहे हैं कि यह जो हुआ था पुलवामा में, यह सरकार ने किया था, हिंदुस्तान ने किया था, वोट लेने के लिए किया था.
पाकिस्तान की संसद में तमाम सांसद सत्यपाल मलिक के बयान को कोट कर रहे हैं. वो कह रहे हैं कि आप हमसे सवाल पूछ रहे हैं, लेकिन आरोप तो आपके घर से लग रहे हैं. पाकिस्तान के टीवी चैनल्स में हामिद मीर जैसे पत्रकार सत्यपाल मलिक के बयानों को अपने शो में बड़ी-बड़ी जगह दे रहे हैं. अब सवाल यह है कि पाकिस्तान के संसद में अगर इनकी तारीफ होती है तो क्या यह भारत के हित में है या दुश्मन के प्रचार में? क्या यह देश की सुरक्षा को कमजोर करने का जरिया बन रहे हैं? क्या व्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल करते समय हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे शब्द किसे ताकत दे रहे हैं? क्या आप अपने देश को कमजोर नहीं कर रहे हैं, और क्या पाकिस्तानी खेल में अब कई भारतीय मोहरा बनते जा रहे हैं?
पाकिस्तान का पुराना खेल और भारतीय मोहरे
पाकिस्तान का पुराना खेल है; वो भारत के आंतरिक मतभेदों को हर बार भुनाने की कोशिश करता है, चाहे कश्मीर का मुद्दा हो, पुलवामा का हो या कोई और घटना. वो भारत के कुछ बयानों को अपने प्रचार का हथियार बनाता है. लेकिन सवाल फिर यही है कि क्या भारत के कुछ लोग जानबूझकर, अनजाने में इस खेल का मोहरा बन रहे हैं?
हम कुछ और उदाहरण देते हैं जिससे आपको और स्पष्ट होगा. द वायर और आरफा खानम शेरवानी का बयान. पहलगाम हमले के बाद हिंदुस्तान दुखी था, हर आंखों में आंसू थे, पूरा देश सरकार से कह रहा था शोक में कि इसका बदला लिया जाए, सरकार पर हम दबाव बना रहे थे. 10-12-13 दिन हो गए तब तक दबाव बनता रहा, लेकिन जब सरकार ने पाकिस्तान में ऑपरेशन को अंजाम दिया तो आरफा खानम शेरवानी जो हिंदुस्तान की पत्रकार हैं, उन्हें भारत की आतंकवाद पर हुई कारवाई निर्दोषों की हत्या नजर आती है. कितनी विडंबना है!
मसूद अजहर, जो घोषित आतंकवादी है, वो बयान जारी करता है कि मेरे घर पर हमला हुआ, वो यह मानता है कि उसके आतंकी भाई को मार डाला गया, आतंक के परिवार का सफाया हो गया. वो कहता है कि काश मैं भी मर गया होता, मैं भी वहां होता. लेकिन हिंदुस्तान के पत्रकार यह कह रहे हैं कि निर्दोषों की हत्या हुई.
मीडिया की भूमिका और जिम्मेदारी
भारत सरकार, भारतीय फौज और भारत के स्टैंड को क्या कमजोर करने वाला यह बयान नहीं था? निर्दोषों की हत्या उस वक्त ये कहना जब जंग चल रही है, जब पाकिस्तान जम्मू में हमला कर रहा है, पंजाब में हमला कर रहा है, गुजरात में हमला कर रहा है, राजस्थान में हमला कर रहा है, पहलगाम में हिंदुओं का कत्लेआम मचा दिया, उस वक्त ये कहना क्या बिना तथ्यों की जांच के दिया गया ऐसा बयान देश की एकता को कमजोर नहीं करता? जब पाकिस्तान की मीडिया इसे भारत को मानव अधिकार विरोधी दिखाने के लिए इस्तेमाल करती है तो क्या यह हमें अपनी जिम्मेदारी पर सवाल उठाने के लिए मजबूर नहीं करता कि क्या एक पत्रकार की भूमिका में तथ्यों को सामने लाना चाहिए या सिर्फ अपनी कौम या फिर विवादास्पद बयानों से सुर्खियां बटोरना ही पत्रकारिता का नियम है?
द वायर इकलौता नहीं है. हालांकि द वायर पर सरकार ने बैन लगा दिया. द वायर इस वक्त फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन की बात कर रहा है, लेकिन लोग सरकार पर भी सवाल इसलिए नहीं उठा रहे हैं क्योंकि द वायर ने जो कुछ किया और जिस वक्त किया, वो देश को नुकसान पहुंचाने वाला था, देश की स्थिति असहज करने वाला था.
ऐसा ही एक काम द हिंदू की तरफ से भी किया. द हिंदू और विजेता सिंह की रिपोर्ट. द हिंदू की पत्रकार विजेता सिंह. ऑपरेशन चल रहा था, पाकिस्तान फेक नैरेटिव फैलाने लगा. पाकिस्तान के रक्षा मंत्री सीएनएन पर एक्सपोज हो रहे थे जब सीएनएन के जर्नलिस्ट ने उनसे सवाल पूछा कि भाई साहब किस आधार पर आप कह रहे हैं कि पांच विमान मार दिए, तो वो कह रहे थे कि सोशल मीडिया पर सबूत है. वो जानते हैं कौन सबूत था, वही सबूत जो द हिंदू देने की कोशिश कर रहा था. द हिंदू की पत्रकार विजेता सिंह ने तीन भारतीय लड़ाकू विमानों के नष्ट होने का दावा कर दिया. यह दावा किस आधार पर था यह उनको भी नहीं पता था, लेकिन यह दावा जब देश के प्रतिष्ठित अखबार द हिंदू से छपा तो पाकिस्तानी सेना के लिए झूठे प्रचार का एक जरिया बन गया. बाद में हिंदुस्तान की तरफ से इसे खारिज किया गया, द हिंदू ने भी इस पोस्ट को हटाया, माफी मांगी, लेकिन आप जानते हैं कि झूठ के पांव तेज होते हैं, वो जल्दी-जल्दी जाते हैं और सच रेंगता रहता है. एक बार जो खबर वायरल हो गई, कितने लोग फिर उसको वेरीफाई करते हैं?
पाकिस्तान के सामने हिंदुस्तान की स्थिति कमजोर करने में ऐसे अखबारों और ऐसे पत्रकारों की भूमिका बिना सत्यापन के खबरें छापना कौन सी जिम्मेदारी है? क्या यह संभव है कि ऐसी गलतियां अनजाने में हो? हो सकता है, लेकिन दुश्मन के प्रचार को यह बढ़ावा दे रही है, ये हम कह सकते हैं. इसीलिए हमारे यहां भी मीडिया को सोचना चाहिए कि क्या उनकी ये गलती देश की छवि को नुकसान नहीं पहुंचा रही?
विपक्षी पार्टियों से अपील
यही कहानी हम विरोधी पार्टियों से भी कहेंगे कि सियासत में आप विरोध कीजिए, आपका अधिकार है, आपका अधिकार है सरकार को घेरना, आपकी आवाज में हम भी अपनी आवाज मिलाएंगे. लेकिन जब हम और आप सरकार का विरोध कर रहे हैं, जब हम और आप बीजेपी का विरोध करें, तो कम से कम इतनी मैच्योरिटी तो दिखाएं कि कहीं ऐसा न हो कि हमारे बयानों का इस्तेमाल हमारा दुश्मन देश कर बैठे. पाकिस्तानी सेना सत्यपाल मलिक का जो बयान दिखा रही थी उसमें राहुल गांधी भी मौजूद थे और उन्हीं बयानों का इस्तेमाल करके वो पहले पुलवामा का दोष भारत पर मढ़ रही थी और अब पहलगाम को लेकर पाकिस्तान पर जबरदस्ती आतंक का आरोप थोपने की बात कर रहे हैं. सवाल यह है कि क्या सियासी विरोध इतना तीखा होना चाहिए कि देश के खिलाफ प्रचार का हथियार बन जाए?
वही वाला शेर, "दुश्मनी जितनी मन करे जमकर करना, मगर गुंजाइश इतनी रखना" क्योंकि ये राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल है. सरकार के विरोध की आड़ में अनजाने में भी दुश्मन के हितों को बढ़ावा हम नहीं दे सकते. मुझे उम्मीद है कि विपक्ष के नेता इस बारे में और बेहतर तरीके से सोचेंगे और फिर भविष्य में इनका ख्याल रखेंगे. वैसे वो सब समझदार हैं, बस उनको इस बात का एहसास होना चाहिए कि सियासी विरोध में कहीं ऐसा न हो कि उनके शब्द सीमा पर लड़ रहे जवानों के बलिदान को प्रभावित न कर दें.
सवाल बड़ा है, ये हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जब हमारे जवान सीमा पर अपनी जान दे रहे हैं तब यह बयान, ये लेख दुश्मन के प्रचार को हवा दे. सवाल आज गंभीर यह है कि वो बयान जो पाकिस्तान की संसद में चल रहे हैं, वो बयान जो पाकिस्तान के टीवी चैनलों में दिखाए जा रहे हैं, वो बयान जिसे पाकिस्तान के रक्षा मंत्री कोट कर रहे हैं, क्या यह बयान केवल गलती हुई, चाहे कुछ लोगों की व्यक्तिगत कुंठा, कुछ लोगों के सियासी लाभ या कुछ लोगों को अपने अखबार बेचने, सुर्खियों की चाह में ये करवा दिया गया?
राष्ट्रहित सर्वोपरि
जब भारत का कोई बयान या लेख पाकिस्तान के नैरेटिव को मजबूत करता है तो क्या यह हमें अपनी प्राथमिकताओं पर सवाल उठाने के लिए मजबूर नहीं करता? क्या सियासी विरोध, व्यक्तिगत हित या अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तारीफ की चाह देश की एकता, सुरक्षा से ऊपर है? क्या दुश्मन हमारी कमजोरियों को भुनाने की कोशिश करता है तो क्या यह हमारी जिम्मेदारी नहीं कि हम अपने शब्दों में और लेखन में सावधानी बरतें? हम यह भूल रहे हैं कि हमारे शब्द न केवल हमारी आवाज हैं, बल्कि देश की ताकत या कमजोरी का प्रतीक भी हो सकते हैं.
यह वक्त सवाल पूछने और जवाब तलाशने का है कि क्या हमें उन बयानों पर सख्ती नहीं बरतनी चाहिए जो देश की सुरक्षा को कमजोर करते हैं? क्या मीडिया को भी अपनी जिम्मेदारी नहीं समझना चाहिए ताकि तथ्यहीन खबरें दुश्मन के प्रचार का हिस्सा न बनें? क्या नेताओं और बुद्धिजीवियों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उनके शब्द किसके हित में काम कर रहे हैं? क्या हम यह भूल रहे हैं कि पाकिस्तान का खेल पुराना है, लेकिन हमारी एकता ही उसका सबसे बड़ा जवाब हो सकता है? क्या हम अनजाने में उस खेल का हिस्सा बन रहे हैं जिसे हम रोकना चाहते हैं?
यह समय एकजुटता का है, लेकिन सवाल फिर यही है कि क्या हम अपने जवानों की शहादत का सम्मान करते हुए इस बात को सुनिश्चित कर पाएंगे कि न तो बाहरी दुश्मन और न ही भीतर के भ्रामक नैरेटिव भारत की एकता को तोड़ पाएं? क्या हम देश को पहले रखेंगे या फिर सियासत को, सुर्खियों को, व्यक्तिगत हितों को? क्या हम यह समझ पाएंगे कि हमारे शब्द केवल आवाज नहीं, बल्कि देश की ताकत या कमजोरी का भी हिस्सा हैं? अब यह हर भारतीय को तय करना है, क्योंकि अगर पाकिस्तान से आपको जीतना है, तो हमें एकजुट होकर भारत को मजबूत करना होगा, अनजाने में भारत को कमजोर नहीं करना.
उम्मीद करते हैं कि जिन बिंदुओं को हमने उठाया है, उन बिंदुओं को आप भी समझेंगे. आप सरकार के समर्थन करने वाले हों या विरोध करने वाले, लेकिन जब तक पाकिस्तान से जंग है, आप भारत बनकर रहेंगे. और अगर आप भारत होंगे तभी भारत पाकिस्तान के सामने हर मोर्चे पर जीत पाएगा. तभी भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर गर्व से सीना चौड़ा कर कहेगा कि हमने पाकिस्तान के आतंकवाद को मिटाने के लिए जंग शुरू की थी और हम जब तक वो नहीं मिटती, तब तक इस जंग में लड़ते रहेंगे. हम लड़ते रहेंगे ताकि जब शांति आए तो वो लंबे दौर तक रह जाए, क्योंकि यह लड़ाई शांति के लिए है, यह लड़ाई हमारे लिए है, और यह लड़ाई हम तभी जीतेंगे जब हम एकजुट हों. जय हिंद! जय भारत! नमस्कार!
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