USA Keeps BANNING Indian Companies? डोनाल्ड ट्रंप आखिर भारतीय कंपनी क्यों बंद करवाने में लगा है
अमेरिका का दोहरा चेहरा: क्यों दुनिया बदल रही है अपना नजरिया?
26 अप्रैल को अमेरिका ने तीन भारतीय कंपनियों पर अवैध व्यापार करने के आरोप में प्रतिबंध लगा दिए। फिर हाल ही में मई महीने में ही भारत और ईरान, 2003 से रुके हुए चाबहार पोर्ट के समझौते पर हस्ताक्षर करने ही वाले थे कि अमेरिका की तरफ से एक बार फिर से भारतीयों पर प्रतिबंध लगाने की धमकी आने लगती है। इस डील से भारत को अरबों डॉलर का फायदा हो सकता है, लेकिन अमेरिका इससे बिल्कुल नाराज है। लेकिन भारत ने दूसरी तरफ अमेरिका की बिल्कुल नहीं सुनी और 24 मई को यह एग्रीमेंट सफलतापूर्वक साइन कर दिया।
लेकिन एक मिनट, यह तो वही अमेरिका है ना जिसके पिछले तीनों राष्ट्रपतियों ने भारत को अपना सबसे बड़ा सहयोगी और महान दोस्त बताया था। "आई बिलीव अमेरिका कैन बी इंडियाज़ बेस्ट पार्ट।" "अमेरिका विल ऑलवेज बी फेथफुल एंड लॉयल फ्रेंड टू द इंडियन पीपल।" "द रिलेशनशिप बिटवीन द स्टेट्स एंड इंडिया विल बी वन ऑफ़ द डिफाइनिंग रिलेशनशिप्स ऑफ़ द 21st सेंचुरी।"
तो आज आखिर वही अमेरिका अपने सबसे करीबी सहयोगी भारत पर इतने सारे प्रतिबंध क्यों लगा रहा है? हम भारतीयों ने ऐसा क्या कर दिया कि अमेरिका भारत से अपने संबंधों को खराब करके 120 अरब डॉलर के व्यापार को खतरे में डाल रहा है? और भारत का क्या? भारत जिस तरह से इतने आक्रामक कदम उठा रहा है, क्या यह भविष्य में उल्टा तो नहीं पड़ जाएगा? बिल्कुल जैसे ईरान के साथ हुआ। याद है ना? एक समय था जब ईरान ने भी अमेरिका की चेतावनियों को नजरअंदाज किया था और आज अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से ईरान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बर्बाद हो गई है। तो कहीं हमारी भी यही ओवर कॉन्फिडेंस वाली गलती हमारे देश को बर्बाद ना कर दे?
लेकिन यार, अगर आप अभी वैश्विक स्थिति देखोगे ना तो बहुत ही दिलचस्प चल रहा है। अगर आप दूसरे देशों की भी राजनीति पर थोड़ी सी नजर घुमाओगे तो आपको पता चलेगा कि भारत इकलौती कंट्री नहीं है जो अमेरिका की बातों को नहीं मान रही है। आज की तारीख में जो देश अमेरिका के लिटरली प्यादे हुआ करते थे वो भी आज अमेरिका को खुलेआम अवज्ञा कर रहे हैं। जैसे फ्रांस का उदाहरण ले लीजिए। साल 2018 में फ्रांस ने यह खुलेआम बोल दिया था कि "यूएस, हम तेरे सहयोगी हैं, तेरे गुलाम नहीं।"
इनफैक्ट, रूस-यूक्रेन युद्ध में तो उन्होंने यह तक बोल दिया कि रूस अगर यूक्रेन पर परमाणु बम से भी हमला कर दे फिर भी हम रूस को कुछ नहीं करेंगे, जबकि फ्रांस तो एक नाटो सदस्य है। फ्रेंच प्रेसिडेंट इमैनुअल मैक्रों ने अभी-अभी कहा है कि उनका देश रूस पर हमला नहीं करेगा, भले ही मॉस्को यूक्रेन के खिलाफ सामरिक परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करे।
अमेरिका का दूसरा सहयोगी यूके, वो तो चीन की तरफ चलते जा रहा है। अमेरिका के आपत्ति के बाद भी यूके ने चीनी कंपनी हुआवेई को अपने यहां पर 5G टेक्नोलॉजी टेंडर दे दिया। यहां तक कि अमेरिकी कैदी जूलियन असांजे का मामला ले लो जिसे पिछले छह सालों से अमेरिका मांग रहा है, यूके सरकार उसे प्रत्यर्पित करने से सीधा मना कर रही है।
इज़राइल की बात करते हैं। अमेरिका का सबसे करीबी सहयोगी हमेशा इज़राइल रहा है लेकिन अब वो भी अमेरिका की बात बिल्कुल नहीं मान रहा। हाल ही में अमेरिका ने इज़राइल को धमकी दे दी थी कि अगर वह राफा पर हमला करेगा तो फिर अमेरिका इज़राइल को हथियार नहीं देगा। इस पर नेतन्याहू का पलटवार यह था कि "कोई बात नहीं, हम नाखूनों से भी युद्ध लड़ लेंगे लेकिन हम अमेरिका की मदद नहीं लेंगे, हमें उसकी कोई जरूरत नहीं है।" और फिर अमेरिका के खिलाफ जाकर भी अंत में उन्होंने राफा पर हमला किया।
अब सिर्फ इज़राइल नहीं, बल्कि मध्य पूर्व की बात करें तो अमेरिका का सबसे पुराना दोस्त सऊदी के क्राउन प्रिंस ने तो अमेरिका को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाने की धमकी दे दी है। और चीन, वो तो इन सबसे कई कदम आगे चल रहा है। उसने तो सीधे दक्षिण चीन सागर में ही अमेरिकी नौसेना जहाजों को चुनौती देना भी चालू कर दिया है।
तो अगर आप वैश्विक गतिशीलता देखोगे तो कुल मिलाकर कई देशों में अमेरिका के प्रति बहुत ही ज्यादा नफरत पैदा हो रहा है। बट, यू नो व्हाट, एक समय ऐसा था जब इन सारे देशों के लिए अमेरिका की बात पत्थर की लकीर के समान हुआ करती थी। जैसे इज़राइल, यूके और सऊदी ने 1990 से आईएसआईएस और अलकायदा को खत्म करने के लिए मध्य पूर्व में अमेरिका के कहने पर उनके साथ सारा सीक्रेट इंटेल शेयर किया था। यह कंट्रीज लिटरली उस क्षेत्र में अमेरिका के आंख और कान हुआ करते थे।
और इसी तरह चीन ने भी अमेरिका को अपने शिनजियांग प्रांत यानी कि अपने घर में ही एक इलेक्ट्रॉनिक लिसनिंग स्टेशन बनाके दे दिया था ताकि अमेरिका वहां से अपने दुश्मन रूस पर नजर रख सके। और अमेरिका ने भी इन देशों की खूब मदद की थी उस दौरान। कई देशों को तो अमेरिका ने अरबों डॉलर के एड्स देकर उनकी अर्थव्यवस्था को बचाया था, खड़ा किया था और ग्रो किया था।
तो आज आखिर ऐसा क्या वैश्विक बदलाव हो गया कि अमेरिका के ये सारे पुराने पक्के दोस्त आज अमेरिका के ही खिलाफ हो रहे हैं? वेल, यू नो व्हाट फ्रेंड्स, जब भी आप एक शक्ति की स्थिति में आ जाते हो ना तो आपको नीचे लाने वाले दूसरे लोग नहीं बल्कि आप खुद होते हो। और अमेरिका के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। इस पूरे गतिशील बदलाव के पीछे कहीं ना कहीं अमेरिका का ही सबसे बड़ा हाथ है क्योंकि इन सारे देशों ने अमेरिका के बारे में एक बात बहुत अच्छे से जान ली है कि इतने समय से अमेरिका एक नकाब ओढ़ के बैठा था, वो एक हाथ से इन देशों को पैसे तो दे रहा था लेकिन दूसरे हाथ से उसी पैसों से उन देशों की कब्र खोद रहा था।
विश्वास करना थोड़ा मुश्किल लग रहा है, राइट? वेल, डोंट वरी, काफी सारे उदाहरणों और केस स्टडीज के प्रूफ्स के साथ आज मैं आपको यह बताऊंगा कि कैसे अमेरिका दुनिया के सामने शांति और मानवता का एक मसीहा बनता है जबकि इनके दूसरे देशों में शांतिपूर्ण कारनामे तो ऐसे हैं कि उनके फोटोस को भी अगर आप गूगल में सर्च करो तो गूगल तक उसे ब्लर करके दिखाता है। रुको, डिटेल में समझाता हूं।
अमेरिका अपनी वैश्विक इमेज को ना बहुत ही अच्छी तरह से मेंटेन करके रखता है। क्या आप बता सकते हो कि दुनिया भर में प्रेजेंटली अमेरिका कितने युद्ध लड़ रहा है? वेल, अमेरिका के हिसाब से इसका जवाब है ज़ीरो। इसका मतलब बेसिकली यह है कि एट प्रेजेंट अमेरिकी सैन्यकर्मी आधिकारिक तौर पर किसी भी युद्ध या किसी भी युद्ध में शामिल ही नहीं हैं। बेसिकली अमेरिका के संसद के ही हिसाब से उन्होंने लास्ट युद्ध साल 1942 में ही लड़ा था एक्सिस पावर के एक सहयोगी के रूप में। और तब से लेकर आज तक यानी कि ऑलमोस्ट 80 सालों से अमेरिका ने कोई भी युद्ध नहीं लड़ा है। वंस अगेन, ऐसा उनका कहना है।
तो इसका मतलब होगा कि अमेरिका आज दुनिया के सबसे शांतिपूर्ण देशों में से एक है, राइट? लेकिन अब सवाल यहां पर यह आता है कि जब अमेरिका युद्ध ही नहीं लड़ता तो हर साल अमेरिका 800 अरब डॉलर से भी ज्यादा का सैन्य खर्च क्यों कर रहा है? ये इतने सारे पैसे, करीब 1 ट्रिलियन डॉलर आखिर जा कहां रहे हैं? वेल, इस मामले में अमेरिका का कहना यह है कि क्योंकि अमेरिका एक महाशक्ति है और उसके ऊपर दुनिया को बचाने की जिम्मेदारी है, सो इसीलिए अगर आप देखोगे तो अमेरिका को अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, पाकिस्तान, सोमालिया, सीरिया और यमन जैसे देशों में मानवीय हस्तक्षेप करना पड़ता है। और ये तो कुछ ही देशों के नाम हैं। आज भी दुनिया में 51 से भी ज्यादा ऐसे कंट्रीज हैं जिनके साथ अमेरिका का सीधे तौर पर समझौता या डील साइन है उनको प्रोटेक्ट करने का, महाशक्ति की जिम्मेदारियां, यू नो।
और इसीलिए ही अमेरिका अपने हिसाब से कंट्रीज पर प्रतिबंध भी लगाता है। 26 अप्रैल को अमेरिका ने इन तीन भारतीय कंपनियों के ऊपर यह कहते हुए प्रतिबंध लगा दिया था कि इन भारतीय कंपनीज ने कुछ ईरानी ड्रोन्स को अवैध रूप से रूस निर्यात किया। अमेरिका ने यह बोला कि हम वो किसी भी कंट्री को नहीं छोड़ेंगे जो ह्यूमन राइट्स वायलेशन करने वाले ईरान जैसे कंट्री के साथ रिलेशन रखे। और उसने हमारी इन तीन भारतीय कंपनीज को ग्लोबली बैन कर दिया ताकि कोई भी देश अब से उनके साथ ट्रेड ना कर पाए। और वो अलग बात है कि बाद में मालूम पड़ा कि यह कंपनीज एक तरह से कूरियर सर्विसेज चलाती थी। यानी कि जैसे अगर आपके घर पर Zomato से कोई डिलीवरी बॉय ऑर्डर डिलीवर करता है तो वह थोड़ी ना यह देखता है कि पार्सल के अंदर पिज़्ज़ा है या बॉम्ब। तो प्रॉब्लम को जड़ से समझे बिना अमेरिका ने तो इन्हें सीधा बैन कर दिया।
लेकिन आज का भारत चुप बैठने वालों में से नहीं है। भारत ने इन प्रतिबंधों पर चुप बैठना तो छोड़ो, उल्टा भारत अब खुद अमेरिकी कंपनीज को अपने नियम डिक्टेट करने लग गया। और अमेरिकी कंपनीज फिर भी भारत के साथ रिलेशंस नहीं तोड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है इंडियन इकॉनमी, इंडियन स्टार्टअप इंडस्ट्री आज सबसे ज्यादा बूम कर रही है। तो अमेरिका विश्व स्तर पर क्या इमेज मेंटेन करके रख रहा है, यह तो आप जान गए। अब जानते हैं उनकी एक्चुअल रियलिटी के बारे में।
तो पिछले ही साल कार्लेटन यूनिवर्सिटी ऑफ कनाडा में एक रिसर्च कंडक्ट हुआ जिसमें यह पता चला कि अमेरिका दुनिया भर में शांति लाने के लिए ऑन एन एवरेज हर दिन 46 बॉम्ब्स और मिसाइल्स ब्लास्ट करवाता है। आई रिपीट, एवरीडे। यहां तक कि 2016 में भी जब पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का कार्यकाल खत्म हुआ था तब अमेरिकी विदेश विभाग के हिसाब से सिर्फ 8 साल में ओबामा प्रशासन ने दुनिया भर में 26 हजार से भी ज्यादा बॉम्ब्स गिराए थे। और सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि यह सब करने के बाद भी ओबामा को 2009 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला था।
अब सवाल यह आ रहा है कि अमेरिका की ये इतनी बड़ी विडंबना क्या कोई दूसरे देश पकड़ नहीं पा रहे? क्या ये सारे देश अमेरिका को अपने पॉलिटिकल अफेयर्स में एंटर ही क्यों करने देते हैं? एंड वेल, दैट इज बिकॉज़ अमेरिका बहुत ही स्मार्ट साइकोलॉजिकल गेम्स खेलता है। आप अगर इनके एक्शन्स को क्लोजली ऑब्ज़र्व करोगे ना तो अमेरिका जहां पर भी अपने फोर्सेस को उतारता है वहां बड़े ही स्मार्टली उसे ग्रेट पीआर से वॉर नहीं बताता बल्कि एक ह्यूमैनिटेरियन इंटरवेंशन या पुलिस एक्शन का नाम दे देता है। और जब उनके ऐसे ऑपरेशंस में आम जनता मारी जाती है तो वोकैबलरी यहां पर देखो, कोलैटरल डैमेज का नाम दे देता है।
इन फैक्ट, यह "वाइट वाशिंग" टर्म तो अमेरिका ने ही खुद वियतनाम वॉर के टाइम पर इंट्रोड्यूस किया था अपने पीआर के लिए। यहां तक कि साल 1949 में अमेरिका ने बड़े ही स्मार्टली अपने डिपार्टमेंट ऑफ वॉर का नाम चेंज करके डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस रख दिया था। अब ये भी एक वेल प्लांड साइकोलॉजिकल मूव था ताकि दुनिया में कभी भी अमेरिका को एज़ एन अग्रेसर ना देखा जाए। और इनके ये सारे हथकंडे खाली गवर्नमेंट तक ही सीमित नहीं हैं, इनकी मीडिया भी ग्लोबली सेम नैरेटिव को ही पुश करती है। जैसे फॉर एग्जांपल, अगर आप इस वीडियो में देखो तो सीरिया में बशर अल असद की गवर्नमेंट को डिस्टेबलाइज करने के लिए जब अमेरिका आर्म्ड सिविलियंस पर मिसाइल अटैक्स कर रहा था, तब एक अमेरिकन एंकर लोगों की जान लेने वाले लॉन्च को देखकर अमेरिका की तारीफ करते हुए "ब्यूटी ऑफ आवर वेपन्स" बोल रहा है। गाइडेड बाय द ब्यूटी ऑफ आवर वेपन्स एंड दे आर ब्यूटीफुल पिक्चर इन सिनेमेटिंग कि यूएस के ब्यूटीफुल वेपन्स हैव फाइनली कम टू सीरियास रेस्क्यू। आई कैन डिस्क्राइब बिकॉज़ व्हाट वी हैव सीन द लास्ट टू डेज इज़ इंक्रेडिबल।
जबकि अमेरिका के इस ह्यूमैनिटेरियन इंटरवेंशन की असलियत अगर आप जान जाओगे ना तो आई कैन गारंटी यू इसके बाद से अमेरिका के प्रति आपका नजरिया हमेशा-हमेशा के लिए बदल जाएगा। चलो इसके पीछे की इंटरेस्टिंग स्टोरी को थोड़ा सा समझते हैं एज़ अ केस स्टडी। तो बेसिकली 1990 से ही अमेरिका अपने वॉर को दुनिया में दो रीजंस बताकर मार्केट करते आया: नंबर वन, वो दुनिया में पीस के लिए लड़ रहा है और नंबर टू, कम्युनिज्म को काउंटर करने के लिए लड़ रहा है, बिकॉज़ कम्युनिज्म एक बहुत ही हानिकारक आइडियोलॉजी है।
लेकिन इसके पीछे की असल वजह है अमेरिका का द इनफेमस गेम ऑफ थ्रोन्स यानी कि पावर और डोमिनेंस में रहने के कमिटेड इंटेंशंस जिसके लिए अमेरिका के तीन फंडामेंटल स्ट्रैटेजीज़ हैं। फर्स्ट स्ट्रेटजी: अगर आप इस वर्ल्ड मैप को ध्यान से देखोगे ना तो आपको अमेरिका का माइंडसेट क्लियरली समझ में आ जाएगा कि अमेरिका कहीं पर भी अचानक से मुंह उठा के ह्यूमैनिटेरियन पर्पस के लिए नहीं पहुंच जाता है, उसके हर मूव के पीछे एक हिडन इंटरेस्ट छुपा होता है।
जैसे फॉर एग्जांपल, 1900 में जब दुनिया एक नए सदी में एंटर कर रही थी उस टाइम वेस्टर्न कंट्रीज, जैसे यूएस और यूके में इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन इस इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन को चलाने के लिए दो चीजों की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है: फ्यूल और रॉ मटेरियल। अब उस वक्त उन्हें रॉ मटेरियल तो उनके दुनिया भर के कॉलोनीज से मिल जा रहा था लेकिन रॉ मटेरियल को प्रोसेस करने वाले इंडस्ट्रीज का बैकबोन था ऑयल, तेल जो उनके मोस्ट ऑफ द कॉलोनीज के पास नहीं था। लेकिन इसी दौरान 1908 में ईरान, मिडिल ईस्ट का वो पहला देश बना जिसके यहां पर तेल की डिस्कवरी हुई भारी मात्रा में। एंड माइंड यू, उस वक्त सऊदी अरेबिया, यूएई, इराक जैसे देशों में तो तेल अभी तक डिस्कवर ही नहीं हुआ था। इसका रिजल्ट, ईरान इकलौता दुनिया का सबसे बड़ा ऑयल सप्लायर बन गया था।
लेकिन सिर्फ नाम का, क्योंकि ईरानियंस ऑयल फील्ड से ऑयल तो निकाल रहे थे बट ये इसी तेल को ब्रिटिशर्स को एकदम कौड़ियों के दाम में बेच रहे थे, इसका प्रॉफिट सारा ब्रिटिशर्स अर्न कर रहे थे। ईरान का प्रॉफिट शेयर सिर्फ और सिर्फ 14% हुआ करता था, बाकी का 86% प्रॉफिट ब्रिटिशर्स लेकर जाते थे। यानी कि ना तेल उनका था, ना देश उनका था लेकिन 86% प्रॉफिट उनका। बेसिकली सेम जैसे वो इंडिया में ईस्ट इंडिया कंपनी के थ्रू सब कुछ लूट रहे थे, वैसे ही वो एंग्लो-ईरानियन कंपनीज के थ्रू ईरान को लूट रहे थे।
लेकिन फिर 15 मार्च 1951 को ईरान में एक नए प्राइम मिनिस्टर पावर में आते हैं, मोहम्मद मोसादेक। पीएम बनते ही उन्होंने ईरान के सारे ऑयल फील्ड्स को नेशनलाइज करके ब्रिटिशर्स को ईरान से बाहर धकेल दिया, जिस वजह से ईरान को ऑयल का पूरा कंट्रोल मिल गया और ईरान दुनिया में एक पावरफुल नेशन के तौर पर उभरने लग गया। ईरान वो पहला देश बन सकता था जो मिडिल ईस्ट से उभर कर आया हुआ एक सुपर पावर होता।
लेकिन फिर यही न्यूली डिस्कवर्ड वेल्थ ने अमेरिका का भी अटेंशन ईरान की ओर अट्रैक्ट किया। और फिर उसके बाद क्या था? अमेरिका ने बिल्कुल वही किया जो वो हमेशा से करते आया है: इंटरवेंशन। बट इस बार यह कोई डायरेक्ट इंटरवेंशन नहीं था। बड़े ही स्मार्टली अमेरिकन सीआईए और यूके की MI6 ने मिलकर ईरान में एंटी-मोसादेक प्रोपेगेंडा चलाया। मोसादेक को पब्लिकली ऐसे पोर्ट्रे किया जाने लग गया कि ईरानियन किंग मोहम्मद रजा पहलवी के लिए एक बहुत बड़ा थ्रेट है। इस प्रोपेगेंडा से सिर्फ दो सालों के अंदर ही मोसादेक का कूप करवा के ईरान में अमेरिकन और ब्रिटेन के पपेट मोहम्मद रजा पहलवी को इंस्टॉल कर दिया गया। और फिर बिल्कुल वही हुआ जो अमेरिका और ब्रिटेन चाहते थे। उसके पावर में आते ही अमेरिकन और ब्रिटिश ऑयल कंपनीज, जैसे एक्सॉन, गल्फ ऑयल, मोबिल और स्टैंडर्ड ऑयल ईरान में आके ऑयल एक्सट्रैक्शन से बिलियंस ऑफ डॉलर्स कमाने लग गए।
और यही है एक्सैक्टली अमेरिका की फर्स्ट फंडामेंटल स्ट्रेटजी: पहले एक स्टेबल कंट्री में अनसूटेबल कैंडिडेट को पावर से उठाकर फेंको और वहां अपने एक पपेट को इंस्टॉल करो जहां से आपके हिसाब से लीनिएंट लॉस और पॉलिसीज वो बनवाए ताकि आप उनके नेचुरल रिसोर्सेज को एक्सट्रैक्ट करके बिलियंस ऑफ डॉलर्स का प्रॉफिट एंजॉय करो। लेकिन अमेरिका इसके बाद भी ईरान में नहीं रुका बल्कि उसने अपने सेकंड स्ट्रेटजी का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया ईरान को और ज्यादा लूटने के लिए।
बेसिकली इसके बाद अमेरिका ने एक कदम और आगे बढ़कर अपने पपेट पहलवी के मन में भी इनसिक्योरिटीज पैदा करना शुरू कर दिया कि जनता उसका भी तख्तापलट रातोंरात कर सकती है, सो उसके पास एक स्ट्रांग मिलिट्री होने की जरूरत है। अब जब अमेरिका अगर आपको बोल रहा है कि आपको एक स्ट्रांग मिलिट्री की जरूरत है तो समझ जाओ कि वो क्या बेचना चाहता है आपको। एज अ रिजल्ट, अमेरिका ने उसे 13 बिलियन डॉलर्स के वेपन्स बेच दिए। एंड यू वोंट बिलीव, इसके बाद सिर्फ 25 सालों में अमेरिका ने ईरान से बिलियंस ऑफ डॉलर्स कमाए थ्रू ऑयल एंड वेपन सेल।
बट अमेरिका के सोने के अंडे देने वाली मुर्गी 11 फरवरी 1979 को हाथ से निकल गई जब पहलवी के खिलाफ ईरानियन रेवोल्यूशन हुआ और वहां एक इस्लामिक लीडर आयतुल्लाह खोमेनी पावर में आ गए। क्योंकि पावर में आते ही उन्होंने भी ईरान के सारे ऑयल फील्ड्स को नेशनलाइज कर दिया और इसीलिए आज तक अमेरिका आयतुल्लाह खुमेनी को बुरी तरीके से हेट करता है।
तो सेकंड स्ट्रेटजी बेसिकली है टू फंड एंड वेपनाइज द अपोजिशन। अब खुमेनी ईरानियन रेवोल्यूशन के थ्रू पावर में आए थे और ईरान में उनकी पॉपुलैरिटी और अथॉरिटेरियन रूल होने की वजह से ईरान में कोई भी अपोजिशन खड़ा कर पाना नामुमकिन था। और इसीलिए अमेरिका ने मिडिल ईस्ट रीजन में अपने विज़न को थोड़ा सा ज़ूम आउट किया और ईरान के जस्ट बाजू में उनको एक पोटेंशियल कंट्री विथ अ पोटेंशियल कैंडिडेट भी मिल गया: सद्दाम हुसैन, द लीडर ऑफ इराक।
अब यह वही दौर था जब दुनिया टेक्नोलॉजिकल एडवांसमेंट की तरफ बढ़ रही थी और मिडिल ईस्ट के कंट्रीज, जैसे सऊदी, यूएई और इराक में एक के बाद एक ऑयल डिस्कवरीज हो रही थी। और नतीजन, नॉट सो कोइंसिडेंटली, अमेरिका के इन्हीं देशों के साथ नजदीकियां भी बढ़ रही थी। अमेरिकन प्रोफेसर और फॉरेन पॉलिसी एक्सपर्ट नोम चोम्स्की के अनुसार, 1982 एक काफी इंपॉर्टेंट ईयर था क्योंकि इसी दौरान अमेरिका ने बड़े ही स्ट्रेटेजिकली रोनाल्ड रीगन के लीडरशिप में इराक को स्टेट सपोर्टिंग टेररिज्म के लिस्ट से निकलवाया और एड्स देना शुरू कर दिया। सो इराक की अभी जरूरत थी, सो उस पर फेवर करना शुरू। यहां तक कि इस दौर में ही बायोलॉजिकल और केमिकल वेपन्स तक मिलिट्री एड के नाम पर इराक को सप्लाई किए गए। 1982, यूएस-इराक रिलेशन, इराक द स्टेट सपोर्टिंग।
तो इस दांव से अमेरिका के दो मोटिव्स एब्सोल्यूटली क्लियर हो जाते हैं। पहला, ईरान को काउंटर करने के लिए इराक में सद्दाम जैसे लीडर को स्ट्रांग बनाने की कोशिश कर रहा था अमेरिका। और सेकंड, उस टाइम पर इराक इकलौता मिडिल ईस्टर्न देश था जिसका ऑयल प्रोडक्शन कॉस्ट सबसे कम था। एज़ अ रिजल्ट, इससे प्रॉफिट ज्यादा मिलता था जिसकी वजह से इराक में काफी रैंपेंट तरीके से इकोनॉमिक डेवलपमेंट भी चालू था। बट ऑफ कोर्स, यह अमेरिका के लिए अच्छा नहीं था क्योंकि इससे मिडिल ईस्टर्न रीजन में एक और एक स्ट्रांग इकोनॉमिक सुपर पावर बन जाता था इराक।
अब ऐसे में अमेरिका ने एक तीर से दो निशाना लगाए। पहले तो वो ईरान को काउंटर करने के लिए सद्दाम जैसे परफेक्ट कैंडिडेट को यूज़ करता रहा। दूसरा, उसने मिडिल ईस्ट में इराक सुपर पावर ना बने इसीलिए उसको ईरान के साथ सालों तक वॉर में फंसाए रखा। और अमेरिका की यह स्ट्रेटजी बिल्कुल सक्सेसफुल भी रही। 9 सालों तक दोनों कंट्रीज ने एक दूसरे के साथ एक्सटेंसिवली वॉर लड़ा। डेवलपमेंट तो छोड़ो, 5 लाख से ज्यादा लोगों की जान चली गई, अकेले 2.5 लाख लोगों को मारने का इल्जाम सद्दाम पर आया और दोनों भी कंट्रीज का 1 ट्रिलियन डॉलर्स का नुकसान हुआ। ईरान-इराक में लोग और भी ज्यादा गरीब होते चले गए लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका वो दोनों देशों को अपनी टेक्नोलॉजी, आर्म्स, एम्युनिशंस कंटीन्यूअसली सेल करते रहा, अपने जियोपॉलिटिकल पोजीशन को स्ट्रांग बनाते रहा और उसका प्रॉफिट मीटर हमेशा बढ़ते रहा।
अब बात करते हैं अमेरिका के थर्ड फंडामेंटल स्ट्रेटजी के बारे में। तो 30 दिसंबर 2006 को अमेरिका ने अपने ब्लू आइड बॉय सद्दाम को जान से मार दिया। रीज़न बेसिकली सद्दाम ने इराक और कुवैत के ऑयल फील्ड्स पर अपना पकड़ बढ़ाना शुरू कर दिया था। अब क्योंकि इन दोनों भी कंट्रीज के ऑयल फील्ड्स में अमेरिका इनवॉल्वड था और अमेरिका मिडिल ईस्ट में घुसा ही था तेल के लिए, सो सद्दाम का उनमें इनवॉल्वमेंट मतलब डायरेक्टली अमेरिका के इंटरेस्ट को चैलेंज करना। और दूसरी तरफ वह गल्फ कंट्रीज को यूएस डॉलर की जगह पर यूरोस इस्तेमाल करने को भी कहने लग गया था, व्हिच अगेन चैलेंज्ड यूएस हैजिमनी ऑफ डॉलर। और इसीलिए अमेरिका ने सद्दाम के ऊपर वेपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन होने के यानी कि डेंजरस केमिकल बॉम्ब्स होने के झूठे आरोप लगाना शुरू कर दिया। सद्दाम हुसैन हैज़ गॉन टू लेंथ ग्रेट रिस्क टू वेपन्स। हुसैन इज डिटरमिंड टू गेट हैंड्स ऑन न्यूक्लियर बॉम्ब, न्यूक्लियर वेपन, वेपन एक्टिव, केमिकल बंकर्स, प्रोडक्शन फैसिलिटीज, केमिकल वेपन्स। वही आरोप उन वेपन्स के जो एक टाइम पर तो अमेरिका खुद सद्दाम को सप्लाई कर रहा था और फिर रीजन देकर सद्दाम को एग्जीक्यूट करवा दिया और उसी कंट्री में फिर एक पपेट गवर्नमेंट प्लांट करवा दिया।
अब उसी के कुछ सालों बाद ही अमेरिका का दोगलापन सामने आता है। खुद सीआईए के ही हिसाब से आज तक इराक में वह केमिकल बॉम्ब्स यानी सो कॉल्ड वेपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन कभी मिले ही नहीं। डिस्ट्रक्शन दिसप। उल्टा अमेरिका के इराक को एक पपेट स्टेट बनाने के चक्कर में इराक का हाल कुछ आज ऐसा हो गया।
अगर आपको याद होगा तो सद्दाम हुसैन के ही पावर वैक्यूम को फिल करने के लिए बाद में आईएसआईएस भी बना जो कि पूरे दुनिया का सबसे डेंजरस टेररिस्ट संगठन था। और इसीलिए ऐसा कहते हैं कि आईएसआईएस के बनने में अमेरिका का सबसे बड़ा हाथ है। दे हैव अ मंच ऑफ़ डिसऑनेस्ट पीपल, दे क्रिएटेड आइसेस, हिलरीन क्रिएटेड आइस विथ ओबामा।
और यही एक्जेक्टली है अमेरिका की थर्ड फंडामेंटल स्ट्रेटजी: ब्रिंग इनस्टेबिलिटी बाय क्रिएटिंग वल्नेरेबिलिटीज। इसी स्ट्रेटजी को यूज़ करके अमेरिका ने उस रीजन में आईएसआईएस और अलकायदा दोनों खड़ा किया। नतीजन, पूरे मिडिल ईस्ट में अपने इंटरेस्ट को सिक्योर करने के चक्कर में इनस्टेबिलिटी फैला दी, टेररिज्म फैला दिया जो आज भी सिर्फ मिडिल ईस्ट ही नहीं बल्कि ग्लोबली एक मेजर थ्रेट बन चुका है। अब इसी क्रिएटिंग इनस्टेबिलिटी थ्रू वल्नेरेबिलिटी वाले स्ट्रेटजी से अमेरिका ने तो अपने घर तक को नहीं छोड़ा। यू वोंट बिलीव, सिर्फ लैटिन अमेरिकन रीजंस में ही सीआईए ने 1950 के बाद से 12 देशों में 34 कूप अटेम्प्ट्स करवाए हैं। लाइक इन लैटिन अमेरिका आफ्टर द 1950, इट वास बेसिकली अ सीआईए प्लेग्राउंड, दे कैरिड आउट 34 कूप अटेम्प्ट्स इन 12 कंट्रीज। 34!
आज आए दिन हम सुनते आ रहे हैं कि इंडो-पैसिफिक रीजन में क्वॉड, स्क्वाड, ऑकस जैसे ग्रुप्स बन रहे हैं ताकि जापान, ऑस्ट्रेलिया, इंडिया और साउथ ईस्टर्न कंट्रीज को चाइना के एक्सपेंशनिस्ट पॉलिसी से बचाया जाए। और कई बार तो अमेरिकी राष्ट्रपति खुद फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक रीजन की बात करते हैं। द वायरल इंडो-पैसिफिक रीजन रिमेंस फ्री, ओपन, प्रॉस्पेरस एंड सिक्योर। आई एम हियर टू एडवांस पीस, टू प्रमोट सिक्योरिटी एंड टू वर्क विथ यू टू अचीव ए ट्रूली फ्री एंड ओपन इंडो-पैसिफिक।
बट ये सब तो सिर्फ दिखाने वाली बात है ना क्योंकि अमेरिका आज यह जानता है कि दुनिया का 80% ट्रेड सिर्फ इस एक स्ट्रेट ऑफ मलक्का से पास होता है। सो आज पूरे दुनिया का सेंटर ऑफ पावर, रिसोर्स और इन्फ्लुएंस मिडिल ईस्ट नहीं है बल्कि इंडो-पैसिफिक है। और अगर चाइना वहां पर इन्फ्लुएंशियल हो गया तो ये अमेरिका के लॉन्ग टर्म इकोनॉमिकल इंटरेस्ट के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं होगा। सो क्वाइट एविडेंटली, अमेरिका की हमेशा से यही स्ट्रेटजी रही है कि वो अपने इंटरेस्ट को दूसरे देशों की भलाई करने का नाम देता है, हमेशा अपने मूव्स को मोरल पुलिसिंग और डेमोक्रेसी के नाम से मार्केट करता है।
जैसे अगर आप मिडिल ईस्ट के इस मैप को देखोगे, ये सारे मिलिट्री बेसिस अमेरिका ने ह्यूमैनिटेरियन इंटरवेंशन के नाम पर बनाए। अगर आप इसको और ज़ूम आउट करोगे ना तो आज दुनिया का शायद ही ऐसा कोई कोना होगा जहां तक अमेरिका की रीच ना हो। एंड दिस इज फ्रैंकली स्पीकिंग वेरी कंसर्निंग।
लेकिन अमेरिका ने तो मानवता को बचाने के नाम पर दुनिया की इतनी भलाई की है। इराक में 90 लाख लोग, सीरिया में 70 लाख, अफगानिस्तान में 50 लाख और पूरी दुनिया में 3.7 करोड़ मासूम लोग आज बेघर हो गए हैं। फिर ऐसे भी ह्यूमैनिटी के किस्से सामने आए कि सद्दाम के मरने के बाद अमेरिका ने इराकी प्रिजनर्स को किस हालत में रखा था जब द इनफेमस अबू ग्रेब प्रजनन के फोटोस लीक हुए थे तो पूरी दुनिया शॉक हो गई थी। अब इस पे तो एक अलग से पूरा वीडियो ही बन सकता है लेकिन अभी के लिए मैं आपको कुछ क्लीन इमेजेस दिखा देता हूं, कुछ वेज इमेजेस। अगर आप सिंपल अबू ग्रेब प्रजन टाइप भी करोगे तो गूगल पर आपको ऐसे पिक्चर्स मिलेंगे जिसको गूगल ने भी ब्लर करके रखा है और उसकी स्टोरी भी आप समझ सकते हो कि मामला क्या था अबू ग्रेब प्रजन के पीछे।
एंड गाइस, दिस इज द मोस्टेंट रीज़न कि आज दूसरे कंट्रीज, दूसरे सुपर पावर्स जैसे कि इंडिया यह जान रहे हैं कि अमेरिका कोई पीस और ह्यूमैनिटी का मसीहा नहीं है, वो उसका बस एक पॉजिटिव पीआर है जो दुनिया को दिखाने की कोशिश कर रहा है बट अंडर नीथ दैट उसके भी इंटेंशंस हर हाल में अपने पावर, अपने थ्रोन को रिटेन करना ही है और जितना हो सके दूसरे कंट्रीज से रिसोर्सेज को एक्सप्लॉइट करके अपने जियोपॉलिटिकल पोजीशनिंग को स्ट्रांग बनाना। यही स्ट्रेटजी आज दूसरे कंट्रीज भी समझ रहे हैं और इसीलिए वो अमेरिका का साथ देने की जगह पे वो खुद को एक सुपर पावर बनाने की कोशिश कर रहे हैं और इसीलिए वो अमेरिका के हां में हां नहीं भर रहे बल्कि वो खुलेआम अमेरिका को डिसओबे कर रहे हैं।
कितनी इंटरेस्टिंग चीज है, राइट? एक टाइम था जब इंपीरियलिज्म हुआ करता था जब कंट्रीज रातोंरात दूसरे कंट्री पे धावा बोलकर उनके एरिया में घुस के उनकी टेरिटरी को लूटती थी, रिसोर्सेज को लूटती थी। और एक पॉइंट के बाद, यू नो, वर्ल्ड वॉर्स के बाद यह काइंड ऑफ बैन हो गया, इसे सारे कंट्रीज ने मिलकर पब्लिकली कंडम किया और कहा कि ऐसी प्रैक्टिस आगे से नहीं होगी। बट आज के दौर में भी अगर आप देखोगे तो जो सुपर पावर कंट्रीज हैं वो इंपीरियलिज्म नहीं दिखा रहे तो और क्या है यह? बस पहले यह खुलेआम होता था और अभी एक पॉजिटिव पीआर के साथ होता है। व्हिच ट्रूली मेक्स मी फील अगर कोई देश सुपर पावर हो तो कभी भी उसे अपनी एंबिशन की आड़ में अंधा नहीं होना चाहिए बल्कि अपनी दृष्टि अपने एथिक्स और अपने वैल्यूज को बनाना चाहिए, अपने से कमजोर कंट्रीज को एक्सप्लॉइट करने के जगह पर उन्हें सपोर्ट भी तो किया जा सकता है।
आई नो दिस इज मच इज़ियर सेड देन डन बिकॉज़ ग्लोबल डायनामिक्स में बहुत गंदगी है बट आई थिंक वी शुड हैव अ विज़न फॉर अ बेटर वर्ल्ड और तब तक ग्लोबल डायनामिक्स नेचुरली चेंज होते रहेंगे। दिस इज जस्ट एवोल्यूशन गोइंग ऑन ऑल अराउंड, एक स्टेबल स्ट्रक्चर की खोज में ग्लोबल डायनामिक्स चेंज होते रहेंगे, न्यू वर्ल्ड ऑर्डर्स क्रिएट होते रहेंगे। एंड आफ्टर अ पॉइंट इफ वी हैव द राइट विज़न एक ऐसी दुनिया जरूर बनेगी जहां पर ऑल्ट्रोइज्म को ज्यादा वेटेज दिया जाएगा ओवर सेल्फिशनेस।
आई स्ट्रांगली बिलीव कि अगर सुपर पावर्स ने इंडिया के ही वासुदेव कुटुंबकम वाले सिद्धांत को अपना लिया तो आधे से आधे प्रॉब्लम्स ऐसे ही सॉल्व हो जाएंगे। एक फिलॉसफर थे इटालियन फिलॉसफर कॉल्ड निकोलो मैकियावेली। आपने अगर उनके बारे में पढ़ा होगा तो आपको तो उनकी एक फिलॉसफी थी यह कहते हुए कि अगर आपको पावर में रहना है तो आपको कुछ नेस्टी चीजें करनी पड़ेगी, वो अलग बात है कि आपका पीआर होना चाहिए मतलब लोग आपको पॉजिटिवली देखें, लोग आपको अच्छा समझें लेकिन अंडर द हुड आपको कुछ बहुत ही नेगेटिव चीजें करनी पड़ेगी अगर आपको पावर में रहना है तो। सो एक स्कूल ऑफ थॉट है जो इस चीज को बिलीव करता है, मैकियावेलियन फिलॉसफी जिसको कहते हैं। बट देन इस फिलॉसफी को बहुत से लोगों ने चैलेंज भी किया और उन्होंने कहा कि डेवलपमेंट और ऑल्टरिज्म यानी अच्छाई के बल पर भी एक राजा या एक सुपर पावर पावर में रह सकता है। आप इन दोनों स्कूल ऑफ थॉट में से कौन से स्कूल ऑफ थॉट में बिलीव करते हो नीचे कमेंट्स में बताना। आई वुड लव टू नो योर ओपिनियन। मिलते हैं, टेक केयर, जय हिंद।